विद्यार्थियों का जीवन कैसा होना चाहिए?

AWGP- GURUDEV LITERATURE : विद्यार्थी का अर्थ है युवा और युवा मतलब जो शक्ति से भरपूर है। फिर शक्ति तो शक्ति है। सही जगह लगा दें तो चमत्कार करती है और ग़लत काम में लग गई तो सर्वनाश कर सकती है। युवावस्था बचपन और वयस्क की संधि वेला है। अगर इस समय सही दिशा निर्देश, मार्ग दर्शन और साथी सहयोगी मिल जाएं तो जीवन ऊंचाइयों को छूता है। एक विद्यार्थी को ऐसा बनना चाहिए।



 जैसे- कौवा जैसी दूर दृष्टि होनी चाहिए। बगुला जैसा ध्यान मग्न हो। कुत्ते जैसी सावधानी और जागरूकता हो। सादा सात्त्विक और कम भोजन करे। सुखों को छोड़ने वाला हो। विद्यार्थी के लिए यह उसकी शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, बौद्धिक, नैतिक, चारित्रिक और आध्यात्मिक क्षमताओं को बढ़ाने का समय है। एक लड़का सड़क के लैंप के सहारे से पढ़ रहा था। 

एक परिचित ने कहा- इतना कष्ट उठाने से अच्छा है कि कहीं नौकरी कर लेते। विद्यार्थी बोला! महोदय आप नहीं जानते, यह मेरी साधना का, कसौटी का समय है अगर मैंने अपनी क्षमताएं अभी नहीं बढ़ाई तो फिर कभी मुझे मौका नहीं मिलेगा।वह व्यक्ति शास्त्री ईश्वर चन्द्र विद्यासागर जी थे। इस समय श्रेष्ठ पुस्तकों, महापुरुषों और अच्छे मित्रों का साथ लें। परमात्मा पर विश्वास करें। अच्छा पढ़ें और सुने तो उसे लिखें और बार बार पढ़ें। क्योंकि जीवन जीना और जीवन लक्ष्य दोनों अलग अलग हैं। 

एक बार दो मित्र मीठे फल खाने के लिए एक बगीचे में गए।माली ने कहा कि तुम यहां एक दिन रुक कर मन चाहे फल खा सकते हो। एक ने पूरे दिन भर पेट फल खाए और दूसरा उस बगीचे को देखा और कैसे नया बगीचा तैयार करें इसको समझा और घर आकर दूसरा बगीचा तैयार कर लिया। 

इसलिए अपने जीवन में एक लक्ष्य, उद्देश्य को निश्चित करो कि जीवन में क्या बनना चाहते हो, क्या करना चाहते हो। मन में यह पक्का विश्वास करो कि सफलता मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है। मैं उसे पाकर रहुंगा। फिर उसे पाने के लिए जुट जाओ। जूझते रहो लेकिन कभी हिम्मत नहीं हारो। सच्ची लगन, कड़ी मेहनत, पक्का इरादा और निरन्तर प्रयास, सोते- जागते उसी का विचार करो। 

अपने पांवों पर खड़े होकर जी तोड़ मेहनत और परिश्रम करो।अधीर मत होइए। क्योंकि शक्ति और सफलता आपकी परीक्षा लेगी, परखेगी, अग्नि में तपाएगी। अगर  तुम पास हुए तो वरदान देगी।यह मेरा संकल्प है।इसी में अनेकों सिद्धियां और वरदान हैं और यही आत्मविश्वास है। संकल्प के साथ शक्ति को मिलाना भी एक कला है। जिन दिनों समुद्र को छोर हीन समझा जाता था।

उन दिनों में18 वर्षीय कोलंबस ने अमेरिका की कल्पना करी और नक्श चोरी होने के बाद भी उसने रास्ते की सभी परेशानियों में अपनी बुद्धि से हल निकाल कर अमेरिका का रास्ता खोजा और वहां जा पहुंचा।

संसार में क्या है सबसे मूल्यवान संपत्ति?

यह संसार प्रतिभाशाली और अयोग्य दोनों ही तरह के व्यक्तियों से भरा हुआ है। लेकिन अपनी शक्ति को अनावश्यक रूप में खत्म कर देना ही अयोग्यता है और सीमित साधन होने पर भी शक्ति को सही दिशा देने पर बड़े बड़े काम भी सम्भव हैं। 

शक्ति सभी को बराबर मिली है लेकिन ऐसे व्यक्ति उसका लाभ उठा लेते हैं। समय संसार में सबसे अधिक मूल्यवान संपत्ति है। जिससे संसार की कोई भी सफलता खरीदी जा सकती है। इसलिए ध्यान रखें कि आप जो भी काम कर रहे हैं उसे सही समय पर करें नहीं तो आपकी मेहनत आपको कोई भी सफलता नहीं देगी। जैसे असमय बोया गया बीज, असमय जोता गया खेत, असमय काटी गई फ़सल सब बेकार चली जाती है।

 प्रकृति में भी समय पर हुआ कार्य ही फल देता है।असमय की गर्मी, सर्दी, वर्षा सभी दुखदाई होती हैं और नुकसान करती हैं। इसलिए आयु जन्मदिन से नहीं समय के सदुपयोग से करनी चाहिए। जीवन का हर क्षण एक उज्जवल भविष्य की संभावना लेकर आता है। 

नियमितता और निरन्तरता से ही सफलता मिलती है। फिर चाहे वो मन्द गति वाला कछुआ हो या मन्द बुद्धि कालीदास या फिर कोई भी सफलता मिलती ही है। इसलिए जो जीवन से अधिक प्यार करते हों,वे व्यर्थ में एक क्षण भी न गंवाएं। क्योंकि समय ही जीवन का अर्थ और सबसे मूल्यवान संपत्ति है।

क्या है जीवन जीने की कला का नाम?

अनुशासन जीवन जीने की एक कला है। निश्चित और नियमित तरीका है। यदि सड़क पर चलने का नियम या अनुशासन नहीं है तो दुर्घटनाएं होंगी। इसी प्रकार यदि जीवन में, परिवार या समाज में अनुशासन नहीं होगा तो जीवन में असंतोष रहेगा। अनुशासन दो प्रकार का होता है- आंतरिक और बाहरी। बाहरी दूसरों के द्वारा या दूसरों के लिए लगाया जाता है और आंतरिक अपने अंदर होता है।

उसे बनाने के लिए चाहिए- नियमितता और आदतों में सुधार।जो जैसा सोचता और करता है, वैसा ही बन जाता है। कहते हैं कि मनुष्य का भाग्य कपाल अर्थात मस्तिष्क में लिखा होता है और मस्तिष्क में विचार होते हैं। इसलिए वास्तविक शक्तियां साधनों में नहीं, विचारों में होती हैं। 

एक ग्रामीण ने संत ज्ञानेश्वर से पूछा कि मैं संयम से रहता हूं फिर भी मैं रोगी हूं।संत ने कहा कि तुम बाहर से संयम रखते हो परन्तु मन में गन्दे विचार तुम्हें रोगी बना रहे हैं। इसलिए कुविचारों को सुविचारों से काटते रहना चाहिए। भूलों के लिए स्वयं को दंड दें और दूसरे दिन सुबह उस भूल को नहीं करने और रात में उनका फिर से मुलयांकन करें। 

राजा भर्तृहरि का समय के अनुसार चिंतन बदलते रहने से पहले श्रंगार शतक फिर नीति शतक और वैराग्य शतक के रचयिता बनें। ब्रह्मचर्य और अनुशासन एक दूसरे के पूरक हैं। ब्रह्मचारी की बुद्धि और स्मरण शक्ति तेज व वाणी मधुर होती है। वहीं धन,समय और साधनों का सदुपयोग करना चाहिए।धन कमाना सरल है लेकिन खर्च करना कठिन है। इसलिए विवेकपूर्ण कमाओ और विचारपूर्ण खर्च करो। अपनी आवश्यकताओं को रोको और अपने मन पर संयम रखो यही जीवन जीने की कला है।

पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य-AWGP- GURUDEV LITERATURE

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