कैसे हो सकता है आत्म साक्षात्कार?

 आज व्यक्ति सबके विषय में या उनकी आवश्यकताओं के बारे में जानता है लेकिन नहीं जानता सिर्फ अपने विषय में या अपनी आवश्यकताओं के बारे में कि उसे क्या चाहिए। आज जिसे वो पाने में लगा हुआ है या उसे मिल रहा है, उसकी उसे कितनी आवश्यकता है और क्यों है। 



यह भी नहीं पता कि वह सब कुछ उसे इस शरीर के लिए चाहिए या आत्मा के लिए। आत्मा को इस प्रकार समझ सकते हैं जैसे गाड़ी को चलाने के लिए एक ड्राइवर होता है उसी प्रकार इस शरीर को चलाने के लिए आत्मा होती है। जैसे गाड़ी और ड्राइवर अलग अलग हैं उसी तरह से शरीर और आत्मा भी अलग-अलग हैं। बिना ड्राइवर के गाड़ी नहीं चल सकती तो आत्मा के बिना शरीर चल नहीं सकता। 

लेकिन गाड़ी की भी कुछ आवश्यकताएं हैं जैसे उसे पेट्रोल चाहिए। रखरखाव चाहिए उसी प्रकार शरीर को भी भोजन, पानी, हवा, घर आदि चीजें चाहिएं। लेकिन आत्मा को भी कुछ चाहिए। लेकिन आत्मा का ध्यान नहीं रखने से उस पर विश्वास करना या उसका साक्षात्कार करना मुश्किल होता है। इसलिए ईश्वर पर विश्वास करना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना आत्मविश्वास मतलब अपने ऊपर विश्वास करना। अपनी क्षमताओं और प्रतिभाओं पर विश्वास करना। विश्वास करने वाले व्यक्ति ही साहस भरे क़दम उठाकर और बड़े बड़े काम करके कुछ नया करते हैं। इसलिए ईश्वर का विश्वास अपने आत्मविश्वास से भी ऊंचा है। 

व्यक्ति को कोई भी ग़लत काम करने से उसकी आत्मा उसे रोकती है परन्तु वह व्यक्ति उस आवाज को सुनकर भी अनसुनी कर देता है या फिर सुनता ही नहीं है। लेकिन उसे पुलिस, कचहरी, समाज और लोकनिंदा से बचने के लिए अनेकों उपाय मालूम हैं। परन्तु सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान किंतु निष्पक्ष और न्यायकारी उस परमात्मा से बचाना सम्भव नहीं है। ईश्वर कण कण में है अर्थात सर्वत्र और व्यापक है। 

जैसे दूध में पानी और पानी में दूध होता है, उसी प्रकार जब सब आत्माओं में अपने को और अपने आपको सब आत्माओं में देखा जाता है तो आत्मविकास है। दूसरे के दुखों को महसूस करने और सहायता करना आत्मविस्तार है और जब अपने धन, श्रम, समय और क्षमता को उपयोग समाज के लिए होने लगे तो वह आत्मविकास और आत्म साक्षात्कार है। 

इसलिए साकार ईश्वर दर्शन,इस विराट विश्व के, विराट ब्रह्म के रूप में श्री कृष्ण ने अर्जुन और यशोदा जी को तो श्री राम ने माता कौशल्या और काकभुशुण्डि जी को दिखाया था। भगवान शिव और विष्णु का प्रतीक गोल-मटोल पत्थर शिवलिंग और शालिग्राम के रूप में विराट विश्व ही है।



कैसे बनते हैं चौरासी लाख योनियों के बाद संस्कार?

यह संसार अनादि और अनंत है और संसार में हर क्षण जन्म और मृत्यु हो रही है। नन्हे बीज से वट वृक्ष बनना और फिर बीज बन जाना। अनन्त आकाश में ग्रह नक्षत्र का बिना किसी आधार के एक नियम से घूमना।इस सृष्टि का जन्म, पालन और संचालन को कोई एक सत्ता है जो इसे कर रही है। उसका अंश सभी जीवों में है। शरीर पांच तत्वों से बना हुआ है इसलिए उसके सभी कार्यों और कलाओं में भौतिक पदार्थ रहते हैं। 

लेकिन मन और बुद्धि इन भौतिक तत्वों से सूक्ष्म हैं इसलिए उसके सभी कार्यों और साधनाओं में गुण, कर्म, स्वभाव, आत्मा शामिल हैं। जैसे कच्ची धातु और शुद्ध धातु में अन्तर होता है, वैसे ही आत्मा और परमात्मा में अन्तर है। आत्मा भी तपने गलने पर परमात्मा को प्राप्त करने में समर्थ हो जाती है। कहते हैं कि मनुष्य जन्म पेड़, पौधे, पशु, पक्षी, कीड़े जैसी चौरासी लाख योनियों के बाद मिलता है। उनके स्वभाव आत्मा में बस जाते हैं और मनुष्य जन्म होने के बाद भी वह स्वभाव संस्कार के रूप में हर पल उसी प्रकार के काम करने पर मजबूर करते हैं। 

जैसे कौए की अभक्ष भोजन, अविश्वास, धूर्तता,सर्प की तरह से अहंकार, प्रतिशोध, भेड़िए की तरह से हत्या, क्रूरता, बन्दर की तरह से उठाईगीरी तो कुत्ते की तरह जाति द्रोह और पेट के लिए दुम हिलाने की चापलूसी जैसी आदतें समय समय पर दिखाई देती हैं। इसलिए इन आदतों के कारण पतन का मार्ग या नीचे गिरना आसान है लेकिन ऊपर उठना और भले काम करने में कठिनाई होती है। जैसे पशुओं पर अंकुश लगाने के लिए प्रयास किए जाते हैं,उसी तरह से मनुष्य पर अंकुश लगाने के लिए ईश्वर की आस्तिकता का अंकुश होता है। 

जैसे एक बार पिता अपने पुत्र को साथ लेकर चोरी करने गया।पुत्र से कहा कि कोई देखे तो आवाज लगा देना। पिता चोरी करने लगा।पुत्र ने थोड़ी देर बाद आवाज लगा दी कि मालिक देख रहा है। पिता और पुत्र दोनों भागे और कुछ दूर जाकर पिता ने पूछा कि कहां से देख रहा था।पुत्र ने कहा कि वह परमात्मा सब जगह है और सभी जगह से देख रहा है।वह आपको भी चोरी करता हुआ देख रहा था। उसके दण्ड से बचने के लिए भाग जाना ही सही था।

कितना सफल है, समाजवाद, राष्ट्रवाद और साम्यवाद? 

जिस समाज या राष्ट्र ने ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया। उस समाज या राष्ट्र में बिना किसी डर से जो दीख रहा है उसी में सुख शांति की कल्पना करने से साम्यवादी विचारधारा बनी। उस विचारधारा ने अपने समाज या राष्ट्र को प्रभावित किया। सुख, शांति लाने के लिए दमन,आतंक और दण्ड दिया गया और माना गया कि इससे व्यक्तियों का हृदय परिवर्तन किया जा सकता है। लेकिन हो उल्टा रहा है। 

अब व्यक्ति मौके की तलाश में एक तरह से घात लगाकर बैठता है और जैसे ही वह मौका मिलता है वह ईर्ष्यालु और निर्दयी बन जाता है। क्योंकि वास्तविक सदाचार के बीज आस्तिकता के पवित्र आंचल में पलते हैं। कोई भी व्यक्ति बल द्वारा रोके जाने पर स्वयं को बंधा हुआ महसूस करता है और ईश्वर के नियमों में बंधकर गौरवशाली और सुखी महसूस करता है। जैसे नास्तिक व्यक्ति के लिए मांसाहार उसकी आवश्यकता और परिस्थिति के अनुसार उपयोगी और अनुपयोगी होगा लेकिन आस्तिक व्यक्ति के लिए किसी जीव की हत्या या मांसाहार पाप होगा।

 क्योंकि आस्तिक व्यक्ति के लिए वह ईश्वर में और ईश्वर जड चेतन सभी के अन्दर है। वह ईश्वर का और ईश्वर उसका ध्यान करते हैं। जैसे प्रहलाद, ध्रुव, मीरा आदि ये सभी ईश्वर का ध्यान करते थे और ईश्वर भी उनकी रक्षा करते थे। फिर ऐसे व्यक्तियों में आत्मबल, आत्मविश्वास और उत्साह बढ जाता है। प्रेम, सत्य, सहयोग, सेवाभाव इनके स्वभाव में होता है। 

आज संसार में फैला हुआ अनाचार व्यक्तियों, समाज और राष्ट्र के स्वार्थ के कारण ही है।जो दूसरों की सूख सुविधा, अधिकार और सीमा का ध्यान नहीं रखते हैं। ऐसे समाज और राष्ट्र में ही समाजवाद और राष्ट्रवाद बनता है लेकिन उनमें सच्ची आस्तिकता हो, ईश्वर का डर हो तो अपराध खत्म हो जाएंगे और रामराज्य साकार हो सकेगा।

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