साधना का अर्थ है कि स्वयं को साधना। किसी भी साधना पद्धति को करने से पहले यह आवश्यक है कि व्यक्ति स्वयं को साध ले, अर्थात अपनी मनोभूमि को बना लें। स्वयं को उस कार्य के लिए तैयार कर लें। अपने मन,भाव व विचारों को एक ही दिशा में लगाकर सोचें कि यह कार्य सबके हित में है या नहीं। इसलिए सबसे पहले व्यक्ति को जो यह जीवन मिला है, उस जीवन देवता की साधना करनी चाहिए। मनुष्य जीवन एक बहुमूल्य उपहार है।
जो ईश्वर ने अपनी सबसे प्रिय सन्तान को मानव जीवन के रूप में दिया है।मानव ईश्वर का राजकुमार है। जैसे हम अपने प्रिय व्यक्ति को विशेष उपहार देते हैं उसी प्रकार ईश्वर ने भी व्यक्ति को विशेष क्षमताएं और योग्यताएं दी हैं। लेकिन मनुष्य का सहज स्वभाव है कि वह अपने पास या दूर का नहीं देखता है। वह जीवन में सिर्फ वर्तमान में ही हर घड़ी हर पल जीता रहता है और यह नहीं सोचता है कि इस जीवन में कितनी ऋद्धि सिद्धि प्राप्त करके तृप्ति,तुष्टि, शांति प्राप्त कर सकता है। इसी को कहते हैं- वरदान को अभिशाप बना लेना। मनुष्य अपनी भाग्य का निर्माता आप है। अगर मनुष्य चाहे तो वह अपनी क्षमता और योग्यता का विकास कर सिद्धियां प्राप्त कर सकता है। जिस तरह से कस्तूरी हिरण की नाभि में होती है।
उसी प्रकार हर व्यक्ति प्यार, शान्ति तो चाहता है लेकिन उसे वह बाहर ढूंढता है, जबकि प्यार, शान्ति सभी उसके अंदर है। लेकिन जरुरत है अपने अंदर देखने की। इस प्रकार सभी सिद्धियां जीवन देवता की साधना से संभव हैं। इसलिए कहते हैं कि जैसी जिसकी श्रद्धा होगी या जैसा वह मानता है, वैसा ही वह बन जाता है। जैसे बहुत से लोग कहते हैं कि मैं गरीब हूं, अभागा हूं, मेरी कोई सुनता नहीं है आदि।
जब उनकी अपनी ऐसी मान्यता है तो उन्हें वैसा ही मिलता है। और अगर व्यक्ति अपने लिए अच्छा सोचता है तो वह अच्छा और महान बन जाता है। पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी कहते हैं कि मनुष्य भटका हुआ देवता है। जैसे समुद्र गहरा होता है तो उसमें सभी नदियों और पहाड़ों का पानी आकर इकट्ठा हो जाता है। उसी प्रकार मनुष्य को अपने जीवन देवता की,आत्मदेव की साधना करके अपनी योग्यता को बढ़ाकर ईश्वर के अनुदान वरदान लेने चाहिएं। क्योंकि ईश्वर केवल उनकी सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करने को तत्पर हैं। जैसे कहते हैं धन से धन बढ़ता है। ऐसा नहीं कि धन में कोई चुम्बक लगा हुआ है।यह लोक कहावतों के माध्यम से समझाने का तरीका है कि जो अपनी सहायता स्वयं करता है, स्वयं खडा होता है,उसकी सहायता सभी करते हैं।
भवबंधनों से मुक्ति का उपाय क्या है?
जीवन है तो बन्धन भी हैं।हर पल अलग अलग तरह के बन्धन आते रहते हैं।कभी परिवार का बन्धन,तो कभी समाज और राष्ट्र का बन्धन, कभी स्वयं का कभी मन का बन्धन। जीवन तीन भागों में बटा हुआ है आत्मा, शरीर और पदार्थ। इन तीनों में आत्मा या चेतना ही है। जिससे मनुष्य के गुण, कर्म और स्वभाव बनते हैं। जैसे शरीर को चलाने के लिए भोजन, जल और वायु चाहिए। उसी प्रकार आत्मा की उन्नति के लिए उपासना, साधना, आराधना, स्वध्याय , संयम, सेवा,समय दान,अंश दान आवश्यक है। ऐसा करने पर "इस हाथ दें, उस हाथ लें" वाली कहावत सिद्ध होती है। जैसे अगर पानी को ऊपर चढ़ाना है तो मेहनत करनी पड़ती है लेकिन नीचे आसानी से गिराया जा सकता है। उसी प्रकार इस मार्ग में चलने पर तीन बातें रुकावट डालती हैं- लोभ, मोह और अहंकार। इन्हें रावण, कुंभकरण और मेघनाथ कहा गया है। देवी भागवत में महिषासुर, मधुकर और रक्तबीज हैं। हल्की वस्तुएं पानी पर तैरती हैं और भारी डूब जाती हैं। लोभ,मोह और अहंकार रूपी पत्थर व्यक्ति को डूबा देते हैं। जैसे एक सेठ को मृत्यु के देवता लेने के लिए आए तो सेठ ने कुछ समय मांगा। कहा कि बेटे की शादी कर दूं फिर चलूंगा। मृत्यु के देवता ने बात मान ली। फिर आए तो सेठ ने कहा कि बच्चा हो जाने दो। फिर बच्चे को बड़ा हो जाने दो।इस तरह वो कहता रहा और भवबंधन में फंसता रहा। इसलिए अगर किसी व्यक्ति को भवबंधनों और भवसागर से पार पाना है तो इन पत्थरों को अपनी आत्मा के ऊपर से हटाना पड़ेगा। इसके लिए पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने प्रज्ञायोग सिखाया। जिसे जीवन साधना भी कहते हैं। इसमें जप, ध्यान, प्राणायाम, संयम आदि सिखाया जाता है। कहावत है कि एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय। प्रज्ञायोग इसी कहावत को पूरा करता है।
प्रज्ञायोग जीवन को सार्थक कैसे बनाता है?
प्रज्ञायोग व्यक्ति का आत्मपरिष्कार और आत्मविकास करता है। इसमें दो साधनाएं महत्वपूर्ण हैं। आत्मबोध और तत्वबोध। सवेरे आंख खुलने पर "हर दिन नया जन्म" की भावना और रात को सोते समय मृत्यु की गोद में समा जाने का भाव ही जीवन की नैया को सही दिशा देता है। जैसे जब किसी काम की कोई टाइम लाइन होती है तो व्यक्ति जल्दी और पूरे मन से उस कार्य को निश्चित समय में पूरा कर लेता है। क्योंकि वह इथर उधर अपना ध्यान नहीं लगाता है। इसी एक दिन को एक जन्म मानकर उसका सदुपयोग करना चाहिए।
भजन और मनन करना चाहिए। ध्यान में सूर्य की किरणें स्थूल शरीर में स्वास्थ्य और संयम, सुक्ष्म शरीर में विवेक और साहस,कारण शरीर में श्रद्धा और सद्भावना के रूप में प्रकट हो रही हैं। अपने कार्यों और विचारों का मनन करें। एक दिन के जीवन में संयम बनाए रखें। जीवन भी एक शरीर है। शरीर की तरह जीवन में भी साफ सफाई हर पल करनी चाहिए। वहीं साप्ताहिक और अर्धवार्षिक पर्व के रूप में उपवास, ब्रहचार्य, मौन और प्राण संचय करना चाहिए। शारीरिक स्वास्थ्य का तीन रूप से पता लगता है, खुलकर भूख लगना, गहरी नींद आना और काम करने के लिए स्फूर्ति। ज्ञान दान करें। इस प्रकार जीवन देवता की साधना से ऋद्धि, सिद्धि प्राप्त करके तृप्ति, तुष्टि, शांति प्राप्त करके जीवन को सार्थक और सफल बनाया जा सकता है।
http://literature.awgp.org/book/The_Spiritual_Training_and_Adoration_of_Life_Deity/v6.1
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