सबसे अधिक महत्व क्यों दिया गया है गृहस्थाश्रम को?

 गृहस्थाश्रम है तो परिवार हैं और परिवार हैं इसीलिए गृहस्थाश्रम हैं।यह दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं। कहा भी जाता है कि घर- परिवार अर्थात परिवार के लिए एक सुरक्षित स्थान जिस घर कहा जाता है।सबके साथ साथ मिलजुल कर रहने को गृहस्थाश्रम कहा जाता है। गृहस्थ एक तपोवन है और गृहस्थ जीवन एक तप है, साधना है। यह नर को नारायण बनाने की खदान, फैक्ट्री है। 



भक्त, ज्ञानी,संत, महात्मा, विद्वान, पंडित सभी गृहस्थाश्रम में ही गढ़े और ढले जाते हैं। ये गृहस्थाश्रम से ही निकलते हैं। एक बच्चे का जन्म से लेकर शिक्षा, दीक्षा,पालन, पोषण, ज्ञान और संस्कार सभी गृहस्थाश्रम के बीच में ही होता है। आत्मा का विकास सहज ही होता है और व्यक्ति स्वार्थ को छोड़कर परमार्थ करता है। एक दूसरे के त्याग सीखता है। आत्मसंयम सीखता है। आत्मीयता बढ़ती है। जैसे एक सद्गृहस्थ था।संयम से रहता था।बचा हुआ धन और समय परमार्थ में लगा देता। देवता प्रसन्न हुए।इंद्र ने आकर वर मांगने के लिए कहा। असंतोष नहीं, तो क्या मांगें। देवता को बुरा नहीं लगे इसलिए कहा कि उसकी छाया जहां भी पड़े, वहां कल्याण बरसने लगे। इससे वरदान भी मिल गया और अंहकार भी नहीं आया और उसकी साधना भी आगे बढ़ती रही। परिवार बनाकर रहने से ही मनुष्य में सहयोग और सहायता का विकास हुआ है। प्राचीन इतिहास में देखें तो चाहे वो ऋषि हों, देवता हों चाहे ईश्वरीय अवतार, सभी का गृहस्थ जीवन रहा है। एक तरह से कह सकते हैं कि परिवार एक प्रयोगशाला, पाठशाला और व्यायामशाला है। जहां समर्थ राष्ट्र के लिए महामानव गढ़े जाते हैं। जैसे ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, श्री रविन्द्र नाथ ठाकुर, विनोबा जी, गांधी जी, शास्त्री जी इन सभी की शिक्षा घर से ही शुरू हुई थी। जैसे गांधी जी ने राजा हरिश्चन्द्र जी की movie देखी और सत्य बोलने का प्रण ले लिया। इसलिए गुणों का विकास गृहस्थाश्रम में ही सम्भव है।


कैसे बच सकता है कोई भी व्यक्ति काम, लोभ, मोह, ममता जैसे बंधनों से?


गृहस्थाश्रम ही है जो व्यक्ति को सही रास्ता दिखाता है। दो अतिवादी इस आश्रम में देखने को मिलते हैं। पहला लोभ, मोह, माया, ममता के जाल में फंसेगा या कायरतावश इसे छोड़कर वैराग्य की बात करेगा। जबकि लोभ, मोह, ममता यह ऐसे दुर्गुण है कि किसी को नहीं छोड़ते चाहे वह गृहस्ती हो या वैरागी। इसलिए त्याग घर का नहीं विकारों का करना चाहिए। सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाना चाहिए। अपने स्वभाव को बदलना चाहिए। जैसे अंधेरा जब तक ही है जब तक कि वहां रोशनी नहीं है। रोशनी होने पर तो अंधेरा तुरन्त खत्म हो जाता है। एक गृहस्थ को अपने सभी ऋण चुकाने चाहिएं। जैसे एक जमींदार के पास बहुत जमीन थी। उसमें धान बोया  और रखवाली के लिए चारों कोनों पर चौकीदार बैठा दिए। फिर भी तोते आते। अपना पेट भरते और उड़ जाते। लेकिन एक तोता पेट भरने के बाद भी कुछ बालें अपनी चोंच में दबा कर ले जाता। चौकीदारों ने उस तोते को पड़कर जमींदार के सामने किया। जमींदार ने पूछा कि तुम यह बालें क्यों लेकर जाते हो? तोते ने कहा, दो कर्ज चुकाने के लिए, दो कर्ज देने के लिए और दो परमार्थ के लिए। कुल 6 बालें मैं अपने साथ ले जाता हूं। जमींदार ने पूछा, कर्ज चुकाना, देना और बांटना कैसा? तोते ने कहा वृद्ध मां-बाप हैं, अंधे हैं, इसलिए दो बालें उन्हें देता हूं। दो बच्चे बहुत छोटे हैं, उनके लिए और पड़ोसी बीमार है, दो उनके लिए देता हूं। इसे मैं अपना कर्तव्य समझता हूं और चौकीदारों से जोखिम उठाता हूं। जमींदार ने उसे तोते को प्यार किया और खुशी से छोड़ दिया। उस तोते की तरह ही हर गृहस्थी को अपने सभी ऋणों को पूरा करना चाहिए। जैसे देव ऋण, पित्र ऋण, समाज ऋण आदि। सुखी और सफल दांपत्य जीवन तभी संभव है जब नर और नारी दोनों एक दूसरे के पूरक होकर जिएं। अंधविश्वास और मूढ़ मान्यताओं से बचना चाहिए। जैसे साधु की कुटिया में एक बिल्ली रहने लगी। वह बड़े चंचल स्वभाव की थी। इधर-उधर खटपट करती, तो साधु का भजन से ध्यान हटता। साधु ने दयावश बिल्ली को भगाया तो नहीं, पर जब तक ध्यान करते उसे खूंटे से बांध देते। शिष्यों ने सोचा कि बिल्ली को पास में बांधने से साधना की सिद्धि होती है। साधु के मरते ही शिष्यों ने बिल्ली पकड़ कर खूंटे से बांधने की प्रथा भजन के साथ जोड़ ली। गृहस्थाश्रम ही सही मार्ग पर चलने से ही लोभ, मोह, माया जैसे दुर्गुणों से बचा जा सकता है।


क्यों कहा गया है नारी को गृह लक्ष्मी?


भारतीय संस्कृति में कन्या और नारी दोनों को देवी का रूप माना जाता है। विवाह के समय वर को विष्णु और वधु को लक्ष्मी के रूप में देखा जाता है। जब वो लक्ष्मी घर में प्रवेश करती है तो वह गृह लक्ष्मी बन जाती है। क्योंकि विष्णु और लक्ष्मी जी का हमेशा साथ रहता है। इसलिए भारतीय संस्कृति में विवाह विच्छेद के लिए कोई जगह नहीं है। नर और नारी परिवार रूपी गाड़ी को चलाने वाले दो पहिए हैं। नारी परिवार की धुरी है। पुरुष उसका सहायक मात्र है। वह साधन जुटाता है और सहयोग देता है। परन्तु नारी सुबह उठने से लेकर रात्रि में घर के सभी सदस्यों के सोने तक वह हर जगह छाई रहती है। शास्त्रों के अनुसार नारी ब्रह्मविद्या है, श्रद्धा है, शक्ति है,कला है, कामधेनु है, अन्नपूर्णा है। कहने का अर्थ है कि जो मानव के सभी दुखों को दूर करती है या जो इस संसार में श्रेष्ठ है।वह नारी ही है। कहा भी गया है कि,यत्र नार्यस्तु पूज्यंते,रमन्ते तत्र देवता। इसलिए नारी स्वभाव से गृह लक्ष्मी है। नारी एक प्रकार से खदान है और नर या बच्चे उस खदान से निकलने वाले खनिज है। जिस धातु की खदान होगी वही खनिज वहां से प्राप्त होगा। इसी प्रकार जैसी नारी होगी वैसा ही बच्चा होगा। नारी ही परिवार, समाज और राष्ट्र की जननी है।अगर मां नहीं होती तो सृष्टि हो या समाज और राष्ट्र या परिवार हो या बच्चे, इनकी रचना कैसे होती। बड़े बड़े शूरवीर, महात्मा, वैज्ञानिक, पंडित, कलाकार आदि कहां से जन्म लेते। जैसे जब बालक ध्रुव को उसकी विमाता ने अपनी गोद में नहीं बैठने दिया, तो बालक अपनी माता सुनीति के पास गया और सारी घटना बताई‌ माता सुनीति ने कहा कि बेटा मां ने सच ही कहा है। अब तुम तप करके भगवान को प्रसन्न करो और मन इच्छित फल प्राप्त करो। बालक ध्रुव मां के आशीर्वाद से तप करने लगा।नारद जी का मार्ग दर्शन मिला और ध्रुव पद को प्राप्त किया। नारियां प्राचीन काल से ही समर्थ एवं शक्तिशाली रही हैं। इसलिए उन्हें पुरूषों के समान ही अधिकार और सम्मान मिलता था। जैसे रानी लक्ष्मीबाई ,विशाला, अडांल, दुर्गावती आदि अनेकों नाम हैं, जिन्होंने इतिहास रचा है। इसलिए नर और नारी दोनों एक दूसरे सहायक हैं।एक रथ के दो पहिए हैं। दोनों के अधिकार और उत्तरदायित्व समान हैं। फिर भी नारी को गृह लक्ष्मी कहा गया है।

http://literature.awgp.org/book/pragya_puran/v5.1


https://www.youtube.com/watch?v=q8zx5sdE9nc

0 Comments