मृत्यु एक प्रकृति का नियम है। यदि सभी प्राणी जीवित रहने लगे तो क्या होगा? पृथ्वी तो क्या ब्रह्मांड में भी जगह नहीं मिलेगी और पुनः जन्म नहीं होगा तो ये सभी आत्माएं कहां रहेंगी। जैसे नया सामान लेकर पुराने को नहीं हटायेंगे तो चलना,सांस लेना भी मुश्किल हो जाएगा।
इसलिए यह एक व्यवस्था है विवशता नहीं। जर्मनी के आगस्ट बीजमान के अनुसार, मनुष्य में मेरुदंड और मस्तिष्क का विकास होने से मनुष्य मृत्यु के लिए विवश हो गया। क्योंकि मेरुदंड एक प्रकार से मस्तिष्क की पूंछ है।हो सकता है पहले यह मेरुदंड कुछ बड़ा रहा हो या यह कहावत हो। लेकिन यह मेरुदंड मस्तिष्क से जुड़ा हुआ है और मस्तिष्क शरीर की सभी हलचलों का केंद्र है। जब तक mind and body का connection नहीं होगा या mind से किसी प्रकार signal body नहीं मिलेगा तो शरीर में किसी प्रकार की हलचल भी नहीं होगी। लेकिन मनुष्य की महत्वाकांक्षाएं प्रकृति का उलंघन करती हैं।
आत्मा की पुकार हमेशा यही रहती है कि हे प्रभु मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चल। मृत्यु तो इस शरीर का एक परिवर्तन है। भगवान बुद्ध ने अपने शिष्य आनन्द से कहा कि रोओ मत,यह रोने का अवसर नहीं है। स्वयं अपने लिए दीपक बनो।निर्वाण तो नितांत आवश्यक है। जब सुकरात को जहर दिया गया था तो उन्होंने कहा कि देखो जहर मेरे पैर में जा रहा है,अब हाथ में,कमर में और नेत्रों में चढ़ गया है। मेरे इन अंगों ने काम करना बंद कर दिया है, किन्तु मैं फिर भी पहले जैसा हूं। क्योंकि जीवन मरने के बाद भी रहता है।
जैसे पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने सभी शिष्यों को एक आश्वासन, एक भरोसा दिया कि मैं यह शरीर छोड़ दूंगा फिर एक से नहीं पांच शरीरों से काम करुंगा। अनुभवी व्यक्तियों का कहना है कि जीवन शाश्वत है, एक सतत् चलने वाला, गंगा की धारा के समान एक अविरल प्रवाह है।जब कोई व्यक्ति यह कहता है कि मैं मरने वाला हूं,मर रहा हूं। तब व्यक्ति को अपने मरने का अनुभव होता है। अर्थात उसका कोई अंग सही तरीके से काम नहीं रहा है। इसलिए कह सकते हैं कि आत्मा को अपना मरण स्वीकार नहीं है।
जैसे स्वास्थ्य स्वाभाविक है और रोग अस्वभाविक है तो स्वास्थ्य रहने से शरीर पर ध्यान नहीं जाता है लेकिन आने पर उस अंग विशेष शरीर पर ध्यान तुरंत जाता है, उसी प्रकार जब आत्मा शरीर छोड़ देती है तो उधर ध्यान जाता है कि शरीर की मृत्यु हो गई है। जीवन स्वाभाविक है और मरण अस्वभाविक। अन्तर इतना ही है कि स्वाभाविक पर ध्यान नहीं देते और अस्वभाविक पर ध्यान देते हैं। संस्कृत में जन्म का अर्थ है प्रकट होना देखना और मृत्यु का अर्थ है दिखाई नहीं देना।
जैसे लाल मिर्च आग में डालने पर दिखाई देती है, लेकिन जल जाने पर आंखों से दिखाई नहीं देती हैं, लेकिन मिर्च की खुशबू नाक महसूस करती है और उससे आगे मिर्च की उपस्थिति को हमारा शरीर महसूस नहीं कर सकता है। लेकिन यह नहीं कह सकते कि लाल मिर्च नहीं थी या उनका अस्तित्व खत्म हो गया है। इसी प्रकार आत्मा का अस्तित्व हमेशा रहता है और मृत्यु सहज स्वाभाविक है कोई विवशता नहीं है।
संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?
धर्मराज युधिष्ठिर के अनुसार संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि नित्य प्रति दूसरों को मरते देखकर भी मनुष्य अपनी मृत्यु में विश्वास करने को तैयार नहीं होता। वह समझता है कि और कोई भले ही मरे, पर वह सदा सर्वदा धरती पर बना रहेगा। वैसे मृत्यु हर पल जीवन में होती रहती है। मृत्यु का क्षण ही जीवन की परीक्षा का समय होता है।मरते समय में जो रोता है,समझो उसने अपना जीवन बेकार ही गंवा दिया और जो हंसता और शांत रहता है, असली जीवन उसी ने जिया है।
मृत्यु के समय बहुत ही सुखद होता है। उस समय आत्मा परमात्मा से, प्रेमी अपने प्रियतम से,भक्त भगवान से, पुत्र अपनी माता से मिलता है। मृत्यु एक जन्म जैसा ही पर्व है। क्योंकि आत्मा एक नया शरीर धारण करेगी। जिसमें नया उत्साह होगा।नई क्षमता होगी नई ऊर्जा मिलेगी। मनुष्य जीवन का एक एक क्षण अमूल्य है। क्योंकि केवल मनुष्य शरीर ही ऐसा साधन है। जिससे धर्म अर्थ काम मोक्ष और भगवत् प्राप्ति का उपाय किया जा सकता है।
जो मनुष्य पूरा जीवन बुरे कार्यों में निकाल देता है तब अंत समय में वही बुरे कार्य उस पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं," हे मूर्ख मनुष्य तूने हमें सुखदायी समझ कर जो जीवन भर पाला है। अपनी उस मूर्खता का परिणाम देख और युग युगांतरों के लिए जाकर नरक की यातना भोग।" यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जिस बात को हमने अपने जीवन में अधिक स्मरण किया है, जिस कार्य का जीवन में हर बार अभ्यास और अनुभव किया है वही हमें अंत समय में भी याद रहेगा। मनुष्य इस छोटी सी लेकिन महत्वपूर्ण बात को भूल जाता है,यही सबसे बड़ा आश्चर्य है।
सबसे बड़ा योद्धा कौन है?
जो मनुष्य मृत्यु को हंसते हुए गले लगाता है, वह सबसे बड़ा योद्धा है। क्योंकि उसने अपने जीवन को सभी प्रकार के संघर्षों में, प्रतिकूलताओं में जिया है। क्योंकि संघर्ष, प्रतिकूलताएं हर मनुष्य के बार बार आती हैं। इसलिए जो हंसता हुआ, अच्छे कार्य करते हुए, परोपकार करता हुआ जाता है।उसकी मृत्यु के समय उसके साहस की जितनी प्रशंसा होती है। उतनी अन्य बातों की नहीं होती और क्योंकि मृत्यु एक बड़ा और अनोखा युद्ध है। जीवन और मृत्यु पर विजय पाना साहस के बिना संभव नहीं है।
यह वह यात्रा है, जिसका आरंभ सब मोह, माया, कामनाएं,धन, वैभव को छोड़कर और मृत्यु की पीड़ा को सहन करने के बाद ही इस यात्रा का सुखद अहसास होता है। जिस प्रकार एक सफल सैनिक बनने के लिए लगातार और कड़ी मेहनत करनी पड़ती है, तभी वह मैडल ले पाता है। इस प्रकार सफल जीवन जीने के लिए, सफल योद्धा बनने के लिए पूरी जिंदगी उसकी तैयारी की जाती है।
यह 1 दिन का काम नहीं है। ऐसे व्यक्ति ही इतिहास में अमर होते हैं। मृत्यु हर इंसान के जीवन में कई प्रकार से आती है। जैसे क्षणिक मृत्यु - जो पल गया, दैनिक मृत्यु- हर रात्रि सोना, अवस्थान्तर की मृत्यु- जन्म से वृद्धावस्था, अज्ञानांत मृत्यु- पुराने संस्कार को हटाना, देहान्तर मृत्यु - शरीर छोडना आदि अनेक हैं। लेकिन सहासी योद्धा वही है जिसने अपने जीवन को सभी परिस्थितियों से अनुकूलता बनाकर परोपकार के लिए जीवन जीता है,वही इस जीवन का सफल योद्धा है।
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