मरा हुआ किसे कहा जाए और जीवित किसे?

AWGP- आध्यात्मिक क्षेत्र में मृत्यु एक अलंकार है। जिसमें या जिसकी आशा मर गई, जिसका लक्ष्य छूट गया, प्रकाश बुझ गया, वह मृतक है। वैसे भी जब कोई व्यक्ति उत्साह से, लग्न से या जिम्मेदारी से कोई काम नहीं करता है तो कहा जाता है कि मर गए हो या मर रहे हो या मरे हुए से हो।ये सभी उदाहरण हैं कि मनुष्य शरीर सही काम नहीं कर रहा है। भले ही वह सांस ले रहा हो। और वे मृतक जिन्होंने इस शरीर को छोड़ दिया है वे ज्यादा अच्छे हैं, क्योंकि वे अब धरती का अन्न जल नहीं बिगाड़ रहे हैं और शारीरिक, मानसिक, भावनाओं या विचारों से इस वायुमंडल को गंदा करना बंद कर दिया है।



 लेकिन यह अलंकार मृत्यु शब्द शरीर वैज्ञानिकों के लिए अनेक प्रश्न खड़ा करता है, जैसे कि जो व्यक्ति अभी जिंदा है लेकिन उसे मृत कहा जा रहा है और जिन्हें मृतक समझकर गाढा, जलाया या बहाया जाता रहा है,वे जीवित थे या मृत।आदि। क्योंकि जो व्यक्ति समाज के लिए अच्छे कार्य करते हैं वो युगों तक हमारी स्मृति में जिंदा रहते हैं। भारतीय संस्कृति में पितरों को हमेशा याद किया जाता है और वे भी समय-समय पर सहायता करते रहते हैं। फ्रांस की प्रसिद्ध क्लिनीशियन प्रोफेसर मालोरेट ने राष्ट्र संघ के स्वास्थ्य संगठन को एक गंभीर चेतावनी दी है कि मृत्यु को किस तथ्य के आधार पर घोषित करना चाहिए। जैसे मृतक का हृदय निकालकर दूसरे व्यक्ति में लगाया जाता है और वह काम करना शुरू कर देता है। ऐसी स्थिति में क्या वह व्यक्ति मर गया था या नहीं। क्योंकि शरीर की मृत्यु क्लिनिकल डेथ पहले होती है और जीवन का अंत बायोलॉजिकल डेथ उसके बाद आती है। लेकिन इन दोनों के बीच समय का अंतर कितना रहेगा यह निश्चित नहीं है। जैसे इशु के लिए कहा जाता है कि वह तीन दिन बाद पुनः जीवित हो गए थे। साधारण व्यक्तियों में कभी कभी इस तरह की घटनाएं सामने आती रहती हैं कि उन्हें मृत्यु शैय्या पर लिटा दिया गया और वो पुनः जीवित हो गए। कहा गया कि मृत्यु चार चरणों में होती है। पहली जिसमें सांस की और हृदय की गति कम होते हुए बंद हो जाती है लेकिन मस्तिष्कीय चेतना रहती है। दूसरी जिसे सेरिव्रल डेथ।तीसरी क्लिनिकल डेथ और चौथी जिसमें जीवन की समस्त संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं बायोलॉजिकल डेथ है। लेकिन जर्मनी के दो वैज्ञानिकों ने ऐसे मृतकों को भी पुनर्जीवित करने में ख्याति प्राप्त की है। इसलिए यह एक अनसुलझी पहेली है। ज़िन्दगी और मौत एक सिक्के के दो पहलू हैं।


इसका आधार क्या है कि कौन मर चुका है, कौन मार रहा है और कौन मरने जा रहा है?


रूस के वैज्ञानिक लेव्हलैडो को अणु विघटन के शोध कार्य के लिए नोबेल पुरस्कार मिला। लेकिन एक घटना में वह बुरी तरह घायल हुए‌ और उनके हृदय की गति घंटों तक बंद रही। फिर भी जीवन रहा। लेकिन उनका mind काम कर रहा था। उनके दिमाग में खून की गांठे बन गईं।जब उनके ऑपरेशन के समय उनकी पत्नी भेंट के लिए पहुंची, तो उनकी पत्नी ने कहा, अगर तुम मुझे पहचानते हो और होश में हो तो, चार बार पलकें झपका दो। मैं समझ जाऊंगी कि आप सुन रहे हैं और समझ भी रहे हैं। उन्होंने चार बार पलकें झपकायीं। इसके डाक्टरों ने successfully operation किया और बाद में वह अच्छे हो गए। इसलिए मस्तिष्क की मृत्यु ही अंतिम सत्य है। अध्यात्म कहता है कि मस्तिष्क एक कल्पवृक्ष है‌ जहां से भाव, विचार व कार्य पूर्ण होते हैं। मानसिक क्षमता, चरित्रिक दृढ़ता, श्रेष्ठ चिंतन, अच्छे कार्य यह सब चेतना के काम है और यही जीवन है।


मरने के बाद मनुष्य की दशा क्या होती है?


हमारा आने वाला पल कैसा होगा यही अनिश्चित है तो मृत्यु के बाद क्या होगा यह व्यक्ति के कर्मों के आधार पर निर्भर करता है। नचिकेता की कहानी है कि उनके पिताजी ऐसी गऊऔं का दान कर रहे थे जो किसी के काम की नहीं थी। नचिकेता ने ऐसा करने से अपने पिता को रोका तो उन्होंने गुस्से में आकर अपने पुत्र नचिकेता को ही यमराज को दान में दे दिया। तब नचिकेता ने यमराज से यह प्रश्न किया कि मरने के बाद मनुष्य की क्या गति होती है? तो, यमराज ने कहा, जो व्यक्ति इस संसार को ही सब कुछ मानता है, वह मेरे अधीन होकर बार-बार जन्म और मृत्यु के चक्कर में गोते खाता है। लेकिन जब इंद्रियों को अंतर्मुखी कर लेते हैं तो आत्मा का स्वरूप दिखाई देता है। शुक्र यजुर्वेद के अनुसार मनुष्य की आयु कहां तक बढ़ाई जा सकती है, इसकी कोई सीमा नहीं है। वह अमर भी हो सकता है। चरक संहिता, सुश्रुत संहिता या योग दर्शन के अनुसार मनुष्य हजार वर्ष तक जीवित रह सकता है। जीवित रहते हुए भी अगर किसी व्यक्ति के अंदर कोई उत्साह नहीं है या वह दुर्बल है, कमजोर है, तो क्या कहते हैं, इसमें जान नहीं है। मुर्दा जैसा हो गया है। इससे उस व्यक्ति की दुर्गति ही होती है। क्योंकि वह किसी भी तरह से समाज के लिए कोई अच्छा काम नहीं करता है तो उसका मान, सम्मान सभी खत्म हो जाता है। ऐसे व्यक्ति की किसी भी जगह कोई आवश्यकता नहीं होती है और वह हर जगह तिरस्कार या दण्ड का भागीदार बनता है। समाज के लिए अच्छे कार्य करने वाले लोगों की हर जगह आवश्यकता होती है और उन्हें मान सम्मान भी मिलता है। इसलिए हमेशा मृत्यु को ध्यान में रखते हुए अपना जीवन क्रम बनाना चाहिए। एक बार एक ऋषि राजा जनक के पास ब्रह्मज्ञान की शिक्षा लेने गए। राजा जनक ने कहा कि आज आप विश्राम करें और हम कल इस बात पर चर्चा करेंगे।रात को जब वे ऋषि सोए तो उन्होंने देखा कि उनकी गर्दन के ऊपर एक नंगी तलवार लटकी हुई है।सारी रात डर में निकली। जब सुबह राजा जनक ने ऋषि से पूछा कि रात को नींद कैसी आई तो ऋषि ने कहा कि गर्दन पर नंगी तलवार लटकी हुई थी। इसलिए पूरी रात डर से नींद नहीं आई। राजा जनक ने कि ठीक इसी तरह से मैं हमेशा अपनी मौत को ध्यान में रखकर काम करता हूं। यही ब्रह्मज्ञान है। मृत्यु को जीवन का अंत मानना एक दुराग्रह है। जीवन अनन्त है और पुनर्जन्म वास्तविकता है। सुक्ष्म जगत में सभी जीवित हैं और वहां पर कार्य करने की सम्भावनाएं अधिक हैं। क्योंकि स्थूल शरीर की अपनी सीमाएं हैं परन्तु सुक्ष्म शरीर की कोई सीमा नहीं होती है।यह आत्मा स्थूल शरीर से बाहर निकलकर सुक्ष्म शरीर फिर भावनात्मक शरीर और मानसिक शरीर से होते हुए कारण शरीर और उससे भी आगे की यात्राएं करता रहता है। अर्थात इसका अस्तित्व बना रहता है। आज से ही किया गया अभ्यास हमारे इस जीवन में बना रहता है और शरीर छोड़ने के बाद भी वह अभ्यास हमारी आत्मा या चेतना के साथ हमेशा बना रहता है। इसलिए मरणोत्तर जीवन के सत्य को समझकर योजनाबद्ध और प्रगतिशील जीवन जीने में ही समझदारी है। जिससे इस जन्म में भी हमारी स्थिति अच्छी रहेगी और मृत्यु के बाद का जीवन भी अच्छा रहेगा।

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