मृत्यु क्या है?

AWGP मृत्यु शब्द का ध्यान आने पर लगता है जैसे कि जीवन ही समाप्त हो गया है। जबकि होता यह है कि इस शरीर का जीवन समाप्त होता है। जैसे जब कोई भी चीज बहुत पुरानी हो जाती है तो क्या कहते हैं कि यह वस्तु बहुत पुरानी हो गई है। अब इसे बदलकर नई वस्तु लेकर आ जाते हैं। 



चाहे वह वस्तु जब आपने खरीदी थी,तब आपको कितनी ही अच्छी लगी हो,आपकि मन पसन्द रही हो, यहां तक किसी के द्वारा किया गया गिफ्ट हो, कुछ भी हो। समय के अनुसार आप बदलने की सोचते हैं और बदलते हैं। ठीक इसी तरह से आत्मा ने इस शरीर को धारण किया है।जब वह सोचती है कि अब यह बहुत पुराना हो गया है, तो वह इसे बदलने की तैयारी करती है और बदलकर नया उत्साह से नया शरीर धारण करती है। भारतीय संस्कृति में शरीर को एक सराय और आत्मा को राहगीर या पथिक माना गया है। 

जैसे एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं तो वहां किसी होटल, धर्मशाला या सराय में रुकते हैं, उसी प्रकार आत्मा भी अपनी यात्रा में शरीरों में रुकती है और कुछ समय बाद छोड़कर चली जाती है। जिसने जन्म लिया है उसका मरण सुनिश्चित है। क्योंकि सृष्टि का क्रम ही जन्म मरण की धुरी पर घूम रहा है। इसलिए इस मृत्यु की चक्की में सबको पिसना है। कुछ व्यक्ति मृत्यु के डर से अपने जीवन को उपभोगवादी बनाकर इस जीवन का दुरुपयोग करते हैं। परंतु अध्यात्म वादी मृत्यु को एक वस्त्र परिवर्तन की तरह से सहज स्वाभाविक मानते हैं। मरने के बाद जीवन और सूक्ष्म शरीर की मान्यता को आज सभी स्वीकार करते हैं। 

जैसे रात्रि में विश्राम करके सुबह नए जीवन और नए दिन की शुरुआत होती है इसी प्रकार आत्मा विश्राम करती है और फिर जन्म लेकर अपने कार्यों को पूरा करने में जुट जाती है। जैसे हम जीवन में नई जगह पर घूमने के लिए जाते हैं, वहां खुशी मिलती है। इसी प्रकार मृत्यु के बाद का जीवन है। सत्कर्म करने वाले मनुष्य के लिए मृत्यु का समय ऐसा होता है जैसे कन्या को ससुराल जाते समय थोड़ा सा विदाई का दुख होता है परंतु तुरंत ससुराल के सुहागरात के सुखद सपने आने लगते हैं और विदाई का दुख खत्म हो जाता है। मौत और जिंदगी दोनों जुड़वा बहनों की तरह हैं। इसलिए दोनों का सम्मान करना चाहिए।


मनुष्य मृत्यु से डरता क्यों है?

जो व्यक्ति अच्छे कार्य करते हैं वे फांसी के फंदे पर भी हंसते हुए झूल जाते हैं।वो डरते नहीं हैं। फिर मनुष्य जीवन तो देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। क्योंकि मनुष्य जीवन में अच्छे-बुरे कार्य करने की हर व्यक्ति को स्वतंत्रता मिली है। इसलिए मनुष्य जीवन हर व्यक्ति के लिए ईश्वर का अनुपम, अनमोल उपहार है। क्योंकि इसके लिए विशेष कीमत चुकानी पड़ती है। 

वैसे मौत की चर्चा को बुरा समझा जाता है, लेकिन मृत्यु को भुला देना उससे भी ज्यादा बुरा है। रावण, हिरण्यकश्यप जैसे अनेकों राक्षस ने स्वेच्छा से मरने का वरदान प्राप्त किया था। इससे उनका मरने का डर खत्म हो गया और फिर वो अनीति करने लगे। लेकिन मृत्यु को ध्यान रखकर जीवन जीने से राजा जनक की तरह सार्थक हो जाता है। मनुष्य को मृत्यु का डर शारीरिक नहीं मानसिक होता है। क्योंकि मेरा मेरा जितना ज्यादा होगा उतना ही ज्यादा उसे छोड़ने में दुख होगा। जैसे मनुष्य शत्रु से डरता है और सतर्क रहता है। 

उसी प्रकार अगर मौत को एक शत्रु मानकर उससे सतर्क रहकर अपने परलोक को सही बनाया जा सकता है। शरीर का क्रम है, जन्म लेना, बढ़ाना, नष्ट होना और नया रूप धारण करना। आत्मा अनादि और अनंत है। आत्मा ईश्वर जितना ही पुरातन और कभी नष्ट न होने वाला सनातन है। उसकी मृत्यु संभव नहीं है। तो फिर मौत से डरना भी नहीं है। 


क्या मृत्यु एक सुखद यात्रा है?

जब हम थक जाते हैं तो आराम की जरूरत होती है।उसी प्रकार आत्मा भी जब इस शरीर से थक जाती है तो उसे भी आराम की जरूरत होती है। जैसे रात को नींद में हमारा शरीर  बाहर-भीतर चल रहे सभी हलचलों से बेखबर हो कर आराम करता है और सुबह नई ऊर्जा से अपने काम में लग जाता है।उसी प्रकार आत्मा भी विश्राम करती है और उसका नाम है मृत्यु। 

जैसे समुद्र के जाल में जो विशेषताएं हैं, उसकी एक बूंद में भी वही विशेषताएं हैं। इसी प्रकार परमात्मा में जो विशेषताएं हैं, वह आत्मा में भी हैं। जैसे पानी का बर्फ बन जाना, भाप बन जाना, बादल बन जाना, फिर पानी बन जाना। यह पानी का खत्म होना नहीं बल्कि रूप परिवर्तन है। इसी प्रकार मृत्यु के समय स्थूल शरीर का सूक्ष्मीकरण हो जाता है और वह दिखाई नहीं देता है। जैसे पानी का रूप परिवर्तन हुआ, इसी प्रकार शरीर का भी रूप परिवर्तन होता रहता है। उसका जन्म और मरण चलता रहता है। 

लेकिन मृत्यु के बाद आत्मा थोड़ा आराम करती है। इस आराम करने के समय आत्मा अपने अच्छे और बुरे कर्मों को महसूस करती है, थकान मिटाती है और फिर जन्म लेती है। जैसे पंडित श्री राम शर्मा आचार्य जी कहते हैं कि हर रात सोने के समय अपने सभी कार्यों पर एक दृष्टि डालें कि आज जो काम करने थे वो पूरे किए या नहीं। कोई ग़लत काम तो नहीं कर दिया और सुबह उठने पर अपने करने वाले कार्यों की सूची बनाएं। इसी प्रकार आत्मा भी उस विश्राम के समय अपने अच्छे बुरे कार्यों पर विचार करती है और अगले जन्म की तैयारी करती है। कहते हैं आत्मा गर्भ में आने के बाद भगवान से प्रार्थना करती है कि प्रभो मुझे यहां से निकालो। 

मैं आपका भजन, कीर्तन करके अच्छे कार्य करुंगी। लेकिन संसार में आने के बाद वह कितना करती वह उसकी परिस्थितियों पर निर्भर करता है। कह सकते हैं की मृत्यु एक अध्यापक, धर्म और दार्शनिक है जो व्यक्ति को जीना सिखाती है। जैसे कोई भी ऑपरेशन करने से पहले डॉक्टर रोगी को सुन्न कर देता है। इसी प्रकार मृत्यु से पहले व्यक्ति का शरीर सुन्न हो जाता है और उसे प्राण त्यागने का कष्ट महसूस नहीं होता है। जैसे बच्चा अपना होमवर्क पूरा रखता है तो वह अपनी नोटबुक को टीचर के सामने विश्वास से रखता है। इसीलिए मौत को अनिवार्य समझ कर अपना दृष्टिकोण और कार्य ऐसे बनाने चाहिए कि मृत्यु को शांति धैर्य और साहसपूर्वक प्रसन्नता से स्वीकार किया जा सके।

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